Property Law: बेटी को संपत्ति में हक मिलेगा, भले ही पिता ने सालों पहले समझौता किया हो! हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया है कि बेटी का पैतृक संपत्ति में अधिकार जन्मसिद्ध है, जिसे किसी पुराने समझौते या रिलीज डीड से खत्म नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने कहा, संपत्ति का हक केवल कानूनी विभाजन से तय होता है। यह निर्णय बेटियों के लिए समानता और न्याय की बड़ी जीत है।

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पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने हाल ही में एक ऐसा फैसला दिया है जिसने भारतीय समाज में बेटियों की स्थिति को और मज़बूत बना दिया है। अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि एक बेटी का पैतृक संपत्ति में अधिकार जन्मसिद्ध है, और वह इस अधिकार से किसी भी तरह के पुराने “रिलीज़ डीड” या “समझौते” के आधार पर वंचित नहीं की जा सकती।

यह फैसला उस पारंपरिक सोच पर सीधा प्रहार है, जिसमें बेटियों को संपत्ति के अधिकार से बाहर रखा जाता था, और उन्हें अनेक बार पारिवारिक या सामाजिक दबाव में अपने हिस्से से “त्यागपत्र” देने को कहा जाता था।

पैतृक संपत्ति में जन्मसिद्ध अधिकार क्या है?

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में साल 2005 में एक ऐतिहासिक संशोधन किया गया था। इसके तहत बेटियों को भी पैतृक संपत्ति में बेटों के समान अधिकार प्रदान किया गया। इस कानून के बाद से, अगर परिवार में पैतृक संपत्ति का बंटवारा नहीं हुआ है, तो बेटी का हक अपने पिता की संपत्ति में उसी तरह से रहेगा जैसे बेटे का।

हाई कोर्ट ने यह दोहराया कि यह अधिकार किसी “कॉन्ट्रैक्ट” या “रिलीज डीड” से खत्म नहीं हो सकता, खासकर तब जब संपत्ति का विभाजन कानूनी रूप से पूरा न हुआ हो। कोर्ट ने कहा कि जन्मसिद्ध अधिकार जन्म के साथ आता है, और उसे कोई कागज़ी समझौता खत्म नहीं कर सकता।

कोर्ट ने क्यों खारिज किया ‘रिलीज डीड’?

इस मामले में बेटी ने कई साल पहले एक स्टांप पेपर पर एक रिलीज डीड साइन की थी, जिसमें उसने यह माना था कि वह संपत्ति में दावा नहीं करेगी। बाद में जब पिता की संपत्ति का बंटवारा शुरू हुआ, तो उसने अपना हक मांगा, जिसे परिवार ने यह कहकर नकार दिया कि वह पहले ही “अधिकार छोड़ चुकी” है।

पर अदालत ने साफ कर दिया कि अगर पिता की जीवित अवस्था में संपत्ति का कानूनी विभाजन (Partition) नहीं हुआ था, तो उस समय दिया गया कोई भी “रिलीज़ डीड” केवल कागज़ का टुकड़ा है। अदालत ने कहा कि संपत्ति का हक वास्तविक विभाजन से तय होता है, न कि किसी अनौपचारिक समझौते से। इसके साथ ही न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि ऐसे दस्तावेज़ बिना उचित कानूनी प्रक्रिया, पंजीकरण या गवाहों के बनाए गए हों, तो उनका कोई वैधानिक महत्व नहीं होता।

महिलाओं के अधिकारों की दिशा में बड़ा कदम

यह फैसला भारतीय महिलाओं के अधिकारों के इतिहास में एक मील का पत्थर है। कई बार सामाजिक दबाव या रिश्तों की मर्यादा के चलते बेटियां अपने हिस्से को “स्वेच्छा से” छोड़ देती हैं। लेकिन इस फैसले ने यह संदेश दिया है कि कानून के नजरिए में समानता सबसे ऊपर है, चाहे पारिवारिक परंपराएं कुछ भी कहें।

यह निर्णय उन महिलाओं के लिए रास्ता खोलता है जो वर्षों से अन्याय का सामना कर रही थीं और जिन्हें यह बताया गया था कि “तुमने तो अपने अधिकार छोड़ दिए हैं।” अब वे भी कोर्ट में अपने कानूनी हिस्से का दावा कर सकती हैं।

सामाजिक प्रभाव और जागरूकता का महत्व

भारत के ग्रामीण और अर्ध-शहरी इलाकों में अब भी बेटियों को संपत्ति से वंचित रखना सामान्य प्रथा मानी जाती है। लेकिन जैसे-जैसे इस तरह के फैसले सामने आ रहे हैं, समाज में जागरूकता बढ़ रही है। कानून अब एक साधन बनता जा रहा है बेटियों को उनके हक और सम्मान से जोड़ने का।

यह फैसला न केवल कानूनी अधिकारों की बात करता है, बल्कि यह यह भी याद दिलाता है कि समानता का सिद्धांत भारतीय संविधान की आत्मा है। इससे ये संदेश जाता है कि अब न्यायालय परंपरागत भेदभाव के खिलाफ पूरी ताकत से खड़ा है।

Author
Pinki

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